विगत दिनों एक बेहद फूहड़ किस्म की फिल्म सिनेमाग्रहों में अवतरित हुई हैं , जिसका नाम "स्टूडेंट ऑफ़ इयर " (Student of Year) हैं, इस फिल्म के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका हैं अत इसके बारे और लिखना इस लेख के लिए उपुक्त विषय वस्तु नहीं हैं |
इस लेख का उद्देश्य उस विवाद पर अपना पक्ष रखना हैं जो इस फिल्म के एक गाने में "राधा" शब्द और राधा को लेकर गाने की पंक्तियों पर मचा हुआ बेतुका विवाद हैं |
धर्म और नैतिकता के तथा कथित ठेकेदार जो ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं एक बार फिर "धर्म" और "आस्था" के रक्षा के लिए कमर कस के मैदान में आ डटें हैं ,जिन्हें न तो भारतीय संस्कृति ,साहित्य और दर्शन का रत्ती भर ज्ञान हैं और न ही उस परम्परा और अभिव्यक्ति का जो हमारी संस्कृति का अंग रही हैं .
बुद्धि रहित भक्ति और अनियंत्रित कामुकता का हमारे भारतीय साहित्य और दर्शन चिंतन में सदैव निषेध
रहा हैं ,तभी तो वैष्णवो के भावुकता पूर्ण भक्ति को शैव मत चुनोती देता प्रतीत होता हैं ,तो शैवों के अनियंत्रित भोग और तांत्रिक परम्परा के मांस मैथुन मदिरा के दर्शन को जैनमत और बौद्धमत चुनौती देते नज़र आते हैं |
१२ शताब्दी :गणेश और देवी ..रतिक्रिया रत(See the hand of lord Ganesh ) |
यहाँ पर मैं तथागत भगवान बुद्ध के उस उपदेश देने की इच्छा को रोक नहीं पा रहा हूं जो इन खोखले और भ्रमिष्ठ ठेकेदारों के मुहँ पर करार तमाचा हैं जो हर वक्त "धर्म खतरे" में का विलाप करते रहते हैं
मूल मागधी में
"कुल्लुपम वो भिख्खे धम्मं देस्सिसामी
नित्करगाम वो गृहणत्याय |
धम्मपि पहातथापवेगव अधग्मा"
अर्थ:-
"भिक्षुओं ,मैं नौका की तरह धर्म का उपयोग करता हूँ | यह पार होने के लिए है ,पकड़ कर बैठने के लिए नहीं हैं |
जिसे हमने अधर्म मान लिया हैं , उसे तो छोड़ देना ही पड़ता है , किन्तु जिसे हमने धर्म भी मान रखा था , और कालांतर में हमें लगता है की वह धर्म भी अब त्याज्य हैं , तो उसे भी छोड़ देना चाहिए "
आजकल के "धार्मिक कोलाहल" में हम धर्म को पकडे बैठे हैं ,पार होना तो असम्भव हैं
कहने का तात्पर्य यह है की हमारी भारतीय संस्कृति में ,भारतीय साहित्य परम्परा में, काम और आध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं ,तांत्रिक परम्परा में तो देवी के सामने सम्भोग पूजा का अंग ही था ,शंकराचार्य की रचना "सौन्दर्यलहरी" पढ़े तो मालूम होगा की देवी के होटों से लेकर जंघा तक की स्तुति की गई हैं देवी की स्तुति हो या फिर रीतिकाल में घनानंद ,जयदेव और बिहारी जैसे धुरंधर कवियों द्वारा रचे गए अनगिनत पद और पदावलियाँ जिनमें राधा और कृष्ण के प्रतीकों को लेकर सम्भोग,रतिक्रिया और अध्यात्म के विभिन्न आयामों को अपने पदों में स्थान दिया हैं |
गजलक्ष्मी |
सबसे बड़ा उदहारण जो हमारे सामने रोज ही अपने नग्न रूप में रहता हैं वो हैं शिवलिंग ,यह क्या है ? और किसका प्रतीक हैं ? क्या देवी पार्वती की योनी, पिंडी का निचला भाग प्रदर्शित नहीं करता ,इसमें स्थित शिवलिंग जीवन के उद्भव और प्रकृति की रचनाशीलता को नहीं दिखाता
श्री राम और देवी सीता: Artistic Representation |
अब कुछ पदों के द्वारा "राधा" के शोर शराबे पर मचे बेतुके विवाद पर रौशनी डालूँगा
बिहारी कृत बिहारी सतसई में राधा और कृष्ण के केवल प्रेम का ही उल्लेख नहीं बल्कि राधा किस रीति से कृष्ण के साथ रतिक्रिया करती हैं और कृष्ण राधा के तन पर पर कौनसे निशान बनाते हैं इनका बड़ा मनोहारी और काव्यात्मक वर्णन हैं | बेशक कामुक हैं परन्तु कहीं से भी अश्लील और भोंडा नहीं हैं
१ राधा हरि ,हरि राधिका,बनी आई संकेता ;
दमपति रति बिपरति सुख,सहज सूरतहुम लेत
अर्थ:
राधा हरि ,हरि राधिका अर्थात कृष्ण और राधा ने अपनी भूमिका बदल ली है ,रतिक्रिया में राधा कृष्ण के ऊपर हैं (reverse missionary position) ,इस तरह राधा को कृष्ण होने का अहसास हुआ और उसे अभिनव आनंद की प्राप्ति हुई ,जबकि रति क्रिया सामान्य ही थी |
२ पट की धीग कट धाम पियती सोभित सुभग सुभेसा
हड़ रड़चढा छबि देत रहा,सदा रड़ा की रेख
कृष्ण राधा को छेड़ते हुए कहते हैं
काटने के निशान तेरे होटों पर दिखाई दे रहें हैं ,ओ मोहिनी प्यारी क्यों उन्हें छुपा रही हो अपनी साड़ी के पल्लू से
३ कही पथाई मन भवति ,पिया आवन की बात
फूली अंगना में फिरई ,अंग न अंगई समात
पिया के आने की खुशी में ,अपने आँगन में वह खुशी से नाच रही है उसके वक्ष(Breast) प्रसन्नता से इतने फूल गए हैं कि उसकी अंगिया उन्हें संभालने में असमर्थ हैं
देव भाषा संस्कृत के नाटक कर्पूरमंजरी जिसे ,संस्कृत विद्वान लेखक राजशेखर ने लिखा था ,में ११ शताब्दीमें शैव मत और कौलाचार , व्यहवार और आचरण और दर्शन की अद्भुत जानकारी मिलती हैं
इसमे शैव कौलाचारी तांत्रिक अन्य संप्रदायों के आडम्बर की खिल्ली उडाता हुआ कौलाचार को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताता हैं
(मूल प्राकृत भाषा में )
मंतो ण तांतो ण अकिं पी जाणे
झमणाम च ण किम पी गुरुप्रसाद
मज्जम पीवामो ,महिलाम रमामो
मोख्ख्म च जामो कुल माग्गलग्गा
अर्थ: मैं कोई रीति रिवाज या मंत्र नहीं मानता ,न मेरा ध्यान में विश्वास हैं, मेरे गुरु की आज्ञा से मैं मदिरा पान करूँगा और स्त्री के साथ सम्भोग करते हुए मोक्ष प्राप्त करूँगा यही कौलाचार हैं
भैरवानन्द कौलाचार को और स्पष्ट करते हुए कहता हैं
भुक्षीम भाणती हरिबमहा मुह-वी देवा
झणेणा विपाधेणा क दुक्कीआहिम
एकेन्ना केवलं उमा दाई देण दीणनों
अर्थ: "हरि और ब्रह्मा कहते हैं कि मोक्ष ध्यान से प्राप्त होगा ,वेदों का ध्यान और रीतिया (कर्मकांड) करनी पड़ेंगी केवल "उमा" के पति (शिव) ही ऐसे अकेले देव हैं जो कहते हैं कि मोक्ष केवल सम्भोग और मदिरा पान से मिलेगा
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि काम और अध्यात्म किस तरह एक दूसरे से हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं |
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