शनिवार, 23 मार्च 2013

प्रेमचंद के निधन पर प्रकाशित दुर्लभ कविता:लेखक श्री गौरीशंकर मिश्र "द्विजेन्द्र"


प्रेमचंद 

प्रेमचंद तुम छिपे!किन्तु यह नहीं समझा था 
प्रेमसूर्य  का अभी कहाँ हुआ उदय था 
उपन्यास और कथा जगत तमपूर्ण निरुत्तर 
दीप्यमान था अभी तुम्हारा ही कर पाकर 

अस्त हुए रूम ,वृत यहाँ छा गया अँधेरा 
लिया आंधी ने डाल तिमर में आन डेरा 
उपन्यास है सिसकता रहा,रो रही कहानी 
देख रहे यह वदन मोड़ कैसे तुममानी 

सोचो उससे रुठ भागना अभी कथित है 
जिसमे आत्मा प्राण देह सर्वस्व निवर्त हैं 
क्या क्या इसके हेतु तुमने है वारे?
गल्प तुम्हारा और तुम गल्प के हो प्यारे 

हिंदू-उर्दू बहन बहन को गले मिलाया 
आपस कर चिर बैर-भाव को मार भगाया 
रोती  हिंदी इधर,उधर उर्दू बिलखती 
भला आज क्यों तुम्हे नहो करुणा आती 

छोड़ सभी को क्षीण दीन तुम स्वर्ग सिधारे 
रोका नहीं हा ! सके  तुम्हे शुचि प्रेम हमारे
आज नहीं तुम!किन्रू तुम्हारी कहानी 
सदा रहेगी जगत बीच  बन अमिट निशानी 



हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद

विख्यात हिंदी साहित्यिक मासिक पत्रिका "हँस" के १९३७ के "प्रेमचंद विशेषांक "में प्रेमचंद के निधन के  बाद उनसे जुड़ी हुए सस्मरणों को कई भाषाओँ के साहित्यकारों ,समाजसेवियों,प्रकाशकों आदि ने अपने अपने अपने ढंग से  व्यक्त किया | इसमे सब से अन्तरंग और मार्मिक लेख उनकी पत्नी शिवरानी देवी का है जिस में उन्होंने प्रेमचंद को एक लेखक से ज्यादा एक पति,पिता और आम आदमी के रूप में याद किया हैं .इस लेख  से हमें प्रेमचंद की कई घरेलू बातो.उनके आदतों आदि का पता चलता है

 मै इस लेख को शीघ्र ही यहाँ पर लिखेने वाला हूँ | अभ्यंतर  यहाँ मै हिंदी के मूर्धन्य साहित्य कार और "अनामदास का पोथा" और "बाणभट्ट की आत्मकथा" जैसे कालजयी उपन्यासों के रचियिता  हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के इसी अंक में प्रेमचंद के ऊपर लिखे गए लेख को  प्रस्तुत करता हूँ


"अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता की आचार विचार भाषा भाव,रहन सहन ,आशा आंकाक्षाओ,दुःख सुख और सूझबुझ जानना चाहते हो तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता ,आप बे खटके  प्रेमचंद का हाथ पकड़ कर ,मेड़ों पर गाते हुए किसानो को ,अन्तःपुर में मान किये हुए प्रियतमा को,कोठे पर बैठी हुई वारवनिता को ,रोटियों के लिए ललकते हुए भिकमंगो ,कूट परामर्श में लीन  गोविन्दी को,इर्ष्या, परोपकार,प्रेम,दुर्बल ह्रदय बैंकरों को ,साहस  परायण चमारिन को,दोगले पंडितो को,फरेबी व्यापारी को,ह्रदयहींन अफसरों को देख सकते हैं और निशित होकर विश्वास कर सकते हैं कि जो कुछ आपने देखा वह गलत नहीं हैं ."

महाकवि निराला और प्रेमचंद

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

मुंशी प्रेमचंद (१९२५)
जून १९३६ में मुंशी प्रेमचंद की तबियत बहुत खराब थी ,उस वक्त उन्हें देखेने कुछ लेखकगण आकर उन से मिल जाया करते थे ,महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला" भी उनसे मिलने आते रहते थे | निराला इस बात से क्षुब्ध थे कि हिंदी-उर्दू  साहित्य की इस महान विभूति के इस खराब समय पर साहित्य  रसिको,प्रकाशकों और लेखकों की तरफ अनदेखी का सामना करना पड़ रहा हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो | इस लेख में निराला अपनी तीखी टिप्पणी करते हैं 



"हिंदी के युगांतर साहित्य के  सर्वश्रेष्ठ रत्न,अंतरप्रांतीय ख्याति के  हिंदी के प्रथम साहित्यिक,प्रतिकूल परस्थितियो से निर्भीक वीर की तरह लडने वाले,उपन्यास संसार के एकछत्र सम्राट,रचना प्रतियोगता में विश्व में अधिक से अधिक लिखने वाले मनीषियों के समकक्ष आदरणीय प्रेमचंद जी आज महाव्याधि से ग्रस्त होकर शय्याशायी हो रहे हैं | कितने दुःख की बात है कि हिंदी के जिन समाचार पत्रों में हम राजनीतिज्ञ नेताओ के मामूली बुखार का तापमान प्रतिदिन पढते रहते हैं,उनमे श्री प्रेमचंद जी की,हिंदी के महान कथा कार प्रेमचंद की अवस्था की  साप्ताहिक खबर भी हमें पढनें को नहीं मिलती | दुःख ही नहीं ,हिंदी भाषियों को मर जाने की बात हैं लज्जा की बात हैं कि उन्होंने अपने साहित्यिको की ऐसी दशा न होने दी जिससे वो हँसते हुए जीते और आशीर्वाद देते हुए मरते | इसी अभिशाप के कारण हिंदी महारथी होकर भी अपने प्रांतीय साहित्यिको की दासी हैं ,हिंदी तभी महारानी है जब साहित्यिक के ह्रदय आसान पर पूजी जा सके ,पर ऐसा नहीं होता | उसके सेवक वे प्रतिभाशाली युवक ठोकरें खाते हुए बढते और  पश्चाताप   करते हुए मरते हैं "