प्रेमचंद
प्रेमचंद तुम
छिपे!किन्तु यह नहीं समझा था
प्रेमसूर्य का
अभी कहाँ हुआ उदय था
उपन्यास और कथा जगत
तमपूर्ण निरुत्तर
दीप्यमान था अभी
तुम्हारा ही कर पाकर
अस्त हुए रूम ,वृत यहाँ छा गया
अँधेरा
लिया आंधी ने डाल
तिमर में आन डेरा
उपन्यास है सिसकता रहा,रो रही कहानी
देख रहे यह वदन मोड़
कैसे तुममानी
सोचो उससे रुठ भागना
अभी कथित है
जिसमे आत्मा प्राण
देह सर्वस्व निवर्त हैं
क्या क्या इसके हेतु
तुमने है वारे?
गल्प तुम्हारा और
तुम गल्प के हो प्यारे
हिंदू-उर्दू बहन बहन
को गले मिलाया
आपस कर चिर बैर-भाव
को मार भगाया
रोती हिंदी
इधर,उधर
उर्दू बिलखती
भला आज क्यों तुम्हे
नहो करुणा आती
छोड़ सभी को क्षीण
दीन तुम स्वर्ग सिधारे
रोका नहीं हा ! सके
तुम्हे शुचि प्रेम हमारे
आज नहीं तुम!किन्रू
तुम्हारी कहानी
सदा रहेगी जगत बीच
बन अमिट निशानी