शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

पाकिस्तान के वज़ीर-ऐ-खारजा से इक हिन्दुस्तानी की इल्तजा

आज पाकिस्तान के वजीर-खारजा जनाब रहमान मलिक हिंदुस्तान तशरीफ़ लाये ..हिंदुस्तान ने अपनी कदीम रवायत के मुताबिक अपने महमान के इसतकबाल में पलकें बिछा दीं.आखिर क्यों न हो मेहमान को खुदा का दर्ज़ा देना हमारी सकाफत का एक जुज़ हैं .

जनाब मलिक साहब

आपका कहना हैं कि हिंद-पाक को अब अपने माज़ी को भुलाकर आगे बढ़ाना होगा ,बहुत अच्छी बात फरमाई ..मगर आगे बढने के लिए भरोसा भी तो हो कि जिस रकीब को हम हमेशा अपना यार समझते हैं वो अब पीठ में छुरा नहीं उतार देगा.आप कुछ ऐसा कीजिये कि लगे हाँ कि अब वादा खिलाफी नहीं होगी .

२६/११ के मुल्जिमान को कानून के जद में लाकर उन्हें सज़ा दिलवाइए

ताल ठोंक कर कहिये कि दहशतगर्दों के केम्पो का हिंदुस्तान और पाकिस्तान मिलकर सफाया करेंगे

"हिंदुस्तान को पाकिस्तान के कई सियासतदां इसलाह करते आयें है कि हिंदुस्तान बढे भाई जैसा बर्ताव करे..." ज़रूर क्यों नहीं पर छोटे भाई का फ़र्ज़ भी तो अदा कीजिये बड़े भाई की बात मानकर ... आप देखिएगा अमन के रास्ते पर पाकिस्तान अपना पहल कदम जिस दिन रखेगा उस दिन हिंदुस्तान उस कदम को अपने हातों में उठा लेगा बस इक भरोसा देते जाये इस बार आयें है तो ..इसी उम्मीद के साथ मैं दुआ करता हूँ कि हर बार कि तरह ये मुज़ाखरात रस्मी न होकर कुछ हांसिल निकालने वाले साबित हो --आमीन

रविवार, 9 दिसंबर 2012

भारतीय दर्शन और चिंतन:समझने का एक प्रयास



भारतीय दर्शन और इसकी विभिन् धाराओं के बारें में समय समय पर मै थोड़ा बहुत पढता रहा हूं पर इनको समझन पाना मेरे लिए एक बौद्धिक चुनौती ही रही.जिसका कारण हमारे जीवन से संस्कृत का लोप होना और हमारे तथाकथित आजकल के संस्कारों में तर्क और वितर्क को धृष्टता मानना संभवतः रहा हो. समय समय पर अनके पुस्तकों,लेखों से बनाये गए नोट्स पर आखिर मैंने तय कर लिया की कुछ हद तक तो इन्हें आत्मसाथ अवश्य करूँगा और इसी प्रयास में मैंने इस लेख को लिख डाला.


भारतीय दर्शन मुख्यतः दो धाराओं में बटा हुआ माना जा सकता हैं .वैदिक या आस्तिक दर्शन और 
नास्तिक या तांत्रिक दर्शन.वैदिक दर्शन इश्वर और सृष्टि के मूल सिद्धांत की विभिन्न दृष्टिकोणों से विवेचना है,जबकि नास्तिक दर्शन इश्वर और आत्मा की निरंतरता और उपस्थिति को नकारता हैं 


वैदिक दर्शन


वैदिक दर्शन जिसे षडदर्शन(Group of 6 Philosophies)आर्य परम्पराओ का विस्तार है जो आगे लगभग ५ वी सदी इस्वी में पौराणिक मूर्तिपूजक हिंदुत्व के रूप में परिवर्तित हो गया.वैदिक दर्शन की धारायें:- न्याय,वैशेषिक,सांख्य,योग,मीमांसा और वेदांत हैं 



न्याय दर्शन: इस दर्शन का प्रवर्तक महर्षि गौतम को माना जाता हैं .यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधनों को प्रतिपादित करना न्याय दर्शन का मुख्य प्रयोजन हैं  

इस दर्शन के अनुसार ‘प्रमाण’ वह है जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती हैं."प्रमाण" के भी कई रूप बताये गए हैं.प्रत्यक्ष प्रमाण,अनुमान प्रमाण ,उपमान प्रमाण और शब्द प्रमाण.इन प्रमाणों द्वारा जाने गए ‘प्रमेय’(जिसका ज्ञान प्राप्त करना हो) के सम्बन्ध में न्याय दर्शन का यह मत हैं की जगत में ३ सत्ताए हैं,प्रकृति ,आत्मा और परमेश्वर ,ये तीनो ही सत्ताए हैं और यथार्थ में तीनो की सत्ता हैं,न्याय दर्शन के द्वारा इन तीनों के सम्बन्ध में यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता हैं.कालांतर 
में बौद्ध विद्वानों के द्वारा आर्य धर्म और इस दर्शन  कड़ी चुनौती दी गई.

नागार्जुन,वसुबंधु,दिंगनाग और धर्मकीर्ति जैसे धुरंधर बौद्ध दार्शनिक, जगत के मिथ्यातत्व का प्रतिपादन करते थे जो प्रकृति,आत्मा और परमेश्वर की यथार्थ सत्ता को अस्वीकार करता है. ये सभी 
विद्वान बौद्ध होने के पहले आर्य ब्रह्मण थे और वेदों का गहरा ज्ञान रखते थे.

दिंगनाक(५वी सदी इस्वी) ने कहा कि द्रव्य गुण और कर्म के संबंध में जो भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह सब मिथ्या हैं,क्योंकी सब क्षणिक है,इसमें उनका ज्ञान संभव ही नहीं.प्रमाणसमुच्चय,प्रमाणसमुच्चयावृत्ति,न्याय प्रवेश,हेतुचक्रनिर्णय और प्रमाणशास्त्र प्रवेश जैसे 
अभिनतम ग्रंथ लिख कर इस बौद्ध विद्वान ने भारतीय दर्शन में अतुलनीय योगदान दिया.

दिंगनाग की शिष्य परंपरा में धर्मकीर्ति,शांतरक्षित जैसे और भी विद्वान हुए. न्याय दर्शन को मिल 
रही इस तगड़ी चुनौती का सफलता पूर्वक सामना सम्राट हर्ष के समकालीन विद्वान उद्योतकर द्वारा 
किया गय.न्यायवर्तिका नमक ग्रंथ में उन्होंने दिगनाग के दृष्टिकोण का खंडन किया.इस काम को वाचस्पति मिश्र ने आगे बढ़ाते हुए ९वी सदी इस्वी में उद्योतकर के ग्रंथ न्यायवर्तिका पर टीका(Analysis/Review) लिखी और नए तर्क भी दिए.बौद्ध विद्वान दिग्नाग के शिष्य धर्मकीर्ति ने उद्योतकर के ग्रंथ न्यायवर्तिका के खंडन में न्यायबिंदु नामक जो ग्रंथ लिखा था उसका भी वाचस्पति 
मिश्र ने तात्पर्य टीका में जोरदार खंडन किया.

१०वी सदी के आते आते भारत में बौद्ध धर्म का अलग अस्तित्व लगभग धूमिल होने लगा इसका 
मुख्य कारण महायान बौद्धधर्म और पुराणिक हिंदू धर्म में स्थूल रूप में कोई अंतर नहीं रह गया था और तथागत बुद्ध, विष्णु के १० वे अवतार मान लिए गए थे. १०वी सदी में जयंतभट्ट  ने न्यायमंजरी लिखकर जैन,बौद्ध ,चावार्क आदि जैसे सभी नास्तिक मतों का खंडन किया.इसी समय उदयनाचार्य ने वाचस्पति मिश्र की तात्पर्य टीका  की व्याख्या करने के लिए तात्पर्यपरिशुद्धि की रचना की.न्यायकुसुमांजलि उदयनाचार्य का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमे तर्कों द्वारा इश्वर के अस्तित्व को प्रतिपादित किया गया हैं. 

मीमांसा दर्शन(पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा):

महर्षि जैमिनी द्वारा प्रवर्तित यह दर्शन वैदिक कर्मकांडो में पशु बलियों,यज्ञ,विधि विधान की विस्तारपूर्वक व्याख्या करता है.वेदों द्वरा विहित कर्म के निष्पादन से अपूर्व की उत्पत्ति होती हैं और फिर अपूर्व के के अनुसार मनुष्य को कौनसा कर्मफल मिलता हैं,इसका प्रतिपादन पूर्व मीमांसा करती हैं.

गुप्तकाल में शबर स्वामी ने शबरभाष्य लिखा इसी भाष्य पर कुमारिल भट्ट,प्रभाकर,मुरारी मिश्र जैसे वैदिक विद्वानों ने टिकाएं लिखी.कुमारिल भट्ट ने ७वीं के आसपास इसको आगे पढते हुए उत्तर मीमांसा का विकास किया

सांख्य:सृष्टि के कर्ता के रूप में इश्वर की सत्ता को नहीं मानता ,पर प्रकृति और पुरुष एवं  वेद उनकी दृष्टी में अंतिम प्रमाण हैं.कपिल मुनि इसके प्रवर्तक हैं.आसुरि,पंचशिख आदि शिष्यों ने इसे आगे बढ़ाया आचार्य इश्वरकृष्ण ने ४थी सदी में सांख्यसारिका नामक ग्रंथ में इसे पूर्णत प्रतिपादित कर दिया.इस ग्रंथ को बौद्ध भिक्षु परमार्थ ने चीनी भाष में भी अनुवादित किया

वैशेषिक दर्शन:कणाद ऋषि इसके प्रवर्तक माने जाते हैं २री और ३री शताब्दी इसवी तक यह सांख्य दर्शन से पिछाडा हुआ था परन्तु प्रशस्तिपाद ने पदार्थधर्मसंग्रह ग्रंथ में इसे मजबूत आधार दिया,उदयनाचार्य ने इसी ग्रंथ पर अपनी टीका किरणावली की रचना की.




वेदांत दर्शन: वेदांत दर्शन की उत्पत्ति बौद्धधर्म के क्षीण होने और पौराणिक हिन्दुधर्म की अंतिम रूप से प्रतिपादित होने का कारण बनी.इस दर्शन का आधार उपनिषद थे जिन्हें वेदांत भी कहा जाता हैं.
वैदिक धर्म, जो अब मूर्तिपूजक पौराणिक हिन्दुधर्म में पूर्ण रूप से बदल चुका था परन्तु 
शैव,वैष्णव,लोकायत,चावार्क,शाक्त आदि संप्रदायों में बटा हुआ था,के पुनुर्त्थान के लिए यह आवश्यक था कि उपनिषद  के ब्रह्मज्ञान को ऐसे दार्शनिक ढंग से प्रस्तुत किया जाय जो सबको स्वीकार्य हो और ऐसा आदि शंकराचार्य ने सफलतापूर्वक कर दिखाया और इसलिए ही शैव,वैष्णव,शाक्त जैसे अनेक संप्रदायों में आधारभूत ऐक्य स्थापित हो सका.

इस दर्शन के अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति हैं ,जो सीधे सीधे बौद्धधर्म की निर्वाण अवधारणा को जस का तस अपनाने जैसा हैं और शायद इसलिए आदि शंकराचार्य जो इस दर्शन के 
आधार स्तंभ हैं,पर वैदिक विद्वानों ने प्रछन्न बौद्ध” (Buddhist in Vedic Disguise)  होने का आरोप जड़ दिया.

शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का एक मात्र साधन ब्रह्माहै . ब्रह्मा का मतलब तीन मुहँ वाले ब्रह्मा नहीं,यहाँ पर अमूर्त ईश्वरीय सत्ता को ब्रह्मा कहा गया हैं जिसकी तुलना सूफी इस्लाम की तौहीद अवधारणा से की जा सकती हैं. जो अनलहकको प्रतिपादित करता है और अहंब्रह्मस्मी वेदांत को.यही कारण हैं की सूफी इस्लाम और वेदांत में इतनी समानता पाई जाती हैं.

ब्रह्मा वह है जिसमे जगत की उत्पत्ति हुई और जिस में जगत स्थित रहता है और उसी में जगत का विलय हो जाता हैं. ब्रह्मसूत्र को स्पष्ट करने के लिए शंकराचार्य ने शंकरभाष्यलिखा इसमें वेदांत के अद्वैतवाद का बड़ी योग्यता के साथ प्रतिपादन किया है.

उनके अनुसार ब्रह्मा ही सत्य है,जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्मा से भिन्न नहीं हैं और ब्रह्मा के अतिरिक्त 
कोई सत्ता नहीं हैं स्पष्ट है के यह सिद्धांत भक्तिमार्ग से सर्वथा उलट हैं क्योंकि भक्तिमार्ग में भक्त और भगवान का अस्तित्व अलग अलग माना  जाता हैं.बौद्धधर्म के शून्यवाद का प्रभाव अद्वैतवाद पर स्पष्टतः द्रष्टिगोचर होता हैं.

वैष्णव संप्रदाय की इस सिद्धांत से चूलें हिल गई क्योंकि वैष्णव सम्प्रदाय भक्तिमार्ग पर विश्वास रखता था पर यदि जीव और इश्वर में भिन्नता ही नहीं रही तो इश्वर की भक्ति का कोई मतलब नहीं 
रह जाता.इसलिए रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र के नई व्याख्या करते हुए विशिष्टाद्वैत की स्थापना की.रामानुजनाचार्य के अनुसार केवल ब्रह्मा ही एक मात्र सत्ता नहीं हैं,अपितु जीवात्मा(चित्त),जड़ जगत(अचित्त),और परमात्मा,ये तीनों ही सत्ताएं हैं.जीवात्मा और जड़ जगत परमात्मा के शारीर के समान हैं,जो बाह्य जगत के उपादान(reason of cause) का कारण भी हैं और निमित्त का कारण भी.जीवात्मा और जड़ जगत परमत्मा के विशिष्ट गुण हैं और अद्वैत होते हुए भी ब्रह्मा एक ऐसा रूप प्राप्त कर लेता है जिसमें आत्मा की पृथक विशिष्ट सत्ता बनी रहती हैं.इसलिए मोक्ष के लिए आवश्यक है कि जीवात्मा परमात्मा की भक्ति करे.


  
योग दर्शन :इसके प्रणेता पतंजलि हैं इसमें शारीरिक मुद्राओं द्वारा ध्यान की स्थितिओं को प्राप्त किया जाता हैं.शैव और बाद में नाथ योगियों ने इसे अपना मुख्य साधन बनाया और हटयोग की अवधारणा अस्तित्व में आई.तांत्रिक और वज्रयान बुद्धधर्म में भी इसको अपनाया गया 


शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

सर्दियों का एक स्वप्न

आज एक अंग्रेजी पत्रिका में मुझे फ़्रांसिसी कवि ऑर्थर रिम्बौद (Arthur Rimbaud) कि एक सुन्दर कविता "अ ड्रीम फॉर विंटर" पढने को मिली. यह कविता एक सुन्दर अनुभूति है और भाव प्रवण भी .एकाएक  मन में ख्याल आया कि इसका हिंदी भावार्थ कर के देखना चाहिए बस फिर क्या था ...



सर्दियों में जब हम निकल पड़ेंगे 
यात्रा करने  रेल के नीले डिब्बे में
जिसमे होंगे सफ़ेद तकिये ,
निश्चिन्त और आरामदायक 
जिसके हर मुलायम कोनों पर होंगे
चुम्बनों के अम्बार बिखरे हुए 

तुम अपनी आँखे बंद कर लोगी 
जिससे तुम खिडकी के बहार 
नहीं देख पाओगी,
सांझ की उतरती परछाइयाँ,
वो रिरियाती भीड़ भाड़,या 
धूर्त भेडिये या काले कुत्ते 

अब तुम महसूस करोगी 
तुम्हारे गालों पर खरोंचे 
इक मखमली चुम्बन मानो,
एक मतवाली मकड़ी 
तुम्हारी गर्दन पर फिसल गई हो 

और तुम मुझसे कहोगी 
अपना सिर पीछे झुकाकर
"ढूंढो उसे "
और मै उस जीव को ढूढने में 
एक लंबा समय लगाऊंगा 
जो इधर उधर बहुत भागता है 

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

Around the Sea & Across the Mountain


When I enter in the Konkan
Across the mighty Sahyadri
My mind was fully awaken

Mind exploring heights of Sahyadri
Thinking of famous Maratha Bravery
Soul floating on blue wave
Body loosing whole race.

When mind travels along with body
Body can’t cope with mind's peace
There created a long huge space

Around sea
Murmuring divine chanting
Humans seeking lost blessing
Wind & waves buzzing the bell
No one can able to tell

Sizzling damp crystalline send
Force me enough  to bend
With diluting body into it
I said confidently "I got it"

सोमवार, 26 नवंबर 2012

लहरों पर सवार अनुभूतियाँ


मुझे न जाने कितनी बार ही यह अनुभूति होती हैं कि खुशियों और समुद्री लहरों में आपस में कुछ समानताएँ होती हैं ,उदाहरणार्थ खुशियाँ भी लहरों के तरह  उफनती हुई आती हैं और हमारे मन और मस्तिष्क को अपनी शीतल अनुभूतियों से सरोबर कर देती हैं ,आती हुई लहरे ज्यादा  रोमांचित करती हैं बनिस्बत इसके कि जब लहर हमसे टकराए और हम उसकी तीव्रता कम होती हुई महसूस करें , खुशी भी जब आती हुई मालूम होती हैं तो ज्यादा अच्छा लगता हैं बनिस्बत खुशी को भोगते हुए इतना रोमाचं नहीं होता

उपरोक्त विचार मेरे मन में उमड़ घुमड़ के आ रहे थे जब भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिमी घाट पर उत्तर मध्य कोंकण पट्टी का भ्रमण कर रहा था | परशुराम की इस धरती पर पहाड़ ,समुद्र और मैदानों का अद्भुत मिश्रण नज़र आता हैं | एक तरफ  आकाश का चुम्बन लेती सह्याद्री पर्वत की चोटियाँ तो दूसरी तरफ  हिलोरे मारता अरब सागर  और इन दोनों के बीच बसे हुए अनगिनत मंदिर और छोटे छोटे सुरम्य गाँव-कस्बे |



सहयाद्री की चोटियों पर रेंगते बादल और धुंध मुझे जीवन के अबूझ रहस्यों जैसे दिखाई दिए, जिन्हें हम देख तो सकते हैं पर उनका उदगम नहीं जान सकते जैसे धुंध हमारी अज्ञानता को प्रकट कर रही हो जो हमारे पहाड़ रूपी उबड़ खाबड़  जीवन पर छाई हुई है , बादल जैसी महत्वाकांक्षाए जिन्हें हम सैदेव ऊपर की बढते देखते रहते हैं  |


पहाडो के मध्य राजमार्ग सर्पीली आकृति में ढला हुआ एक रोमांचकारी अनुभूति देता हैं जिस पर सफर करना जीवन में लिए गए ऐसे निर्णयों के प्रतिबिंबित करता हैं जिनके परिणाम के बारे में हमें ज्यादा अंदाज़ा नहीं होता.

हरे भरे पेड़ जिनमे नारियल,हापुस और केले बहुतायत में है,तीनो पेड़ एक साथ हमारी भारतीय संस्कृति के तीन आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं | नारियल हमारी हजारो वर्ष पुरानी आध्यात्मिकता का, केले हमारी मानसिक सरलता और हापुस हमारी संस्कृति की उस शक्ति का प्रतीक हैं जो विभिन्न मतों और दर्शनों को
अपने आप  में समाहित और पुनर्नियोजित कर लेती हैं |

कोंकण पट्टी के पूर्व में सह्याद्री है तो पश्चिम में अरब सागर ,ये दोनों परम भोगोलिक स्थितियां हैं जो मेरे लिए जीवन की भव्यता और तरलता का प्रतिनिधित्व करती हैं ,जीवन की भव्यता का तात्पर्य केवल भौतिक उन्नति की प्राप्ति नहीं हैं जीवन के भव्यता निहित हैं इसमें भोगे जाने वाले विभिन्न यथार्थों में, जैसे पहाड़ पर कही घने पेड़ है तो कही झाड़ झंखाड और कही तो नग्न चट्टानें , ये सभी मिलकर पहाड़ को पूर्ण भव्यता प्रदान करते हैं ,ठीक इसी प्रकार सुख-दुःख, सफलता-असफलता ,मान-अपमान आदि मिलकर जीवन को भव्यता प्रदान करते हैं |

 ठीक इसी प्रकार अगर जीवन समुद्र की तरह तरल नहीं होगा यानी वो विभिन् स्थितयों में ढलने के योग्य नहीं होगा तो जीवन की यात्रा लगभग असंभव हैं
क्योंकि तरल ठोस की अपेक्षा ज्यादा तेज़ी से अपनी मंजिल तय करता हैं |

कोंकण के समुद्र तट धार्मिकता और सैर-सपाटे का अद्भुत मिश्रण हैं , किनारे पर प्राचीन मंदिरों में दर्शन कीजिये और मंदिर के पीछे या सामने फैले हुए समुद्र तट पर जाकर लहरों में डुबकी लगाइए या लंबे रेतीले तट पर चलते हुए लहरों से अपना पद प्रक्षालन करवाइए |

कोंकण के समुद्र तटों मंदिर होने से एक बात तो सुनिश्चित हो जाती है कि समुद्र तट "BEACH" नहीं बन पाते जो अच्छा भी और उदासी भरा भी....अच्छा इसलिए कि हरेक आदमी कूड़ा करकट
करने से पहले १० बार सोचता हैं और उदासी भरा इसलिए कि भई "Beach"वाला मज़ा न ले पाने के कारण अधूरापन महसूस होता हैं |

शनिवार, 10 नवंबर 2012

प्रियतमा



प्रिये तुम कितनी कोमल कितनी चंचल
आवाज़ तुम्हारी
कितनी सुरमई
देती मुझे प्रेरणा और हिम्मत हर पल

समीप रहती तुम सदैव मेरे मन के
छवि अमिट है तुम्हारी,
ह्रदय में मेरे
नहीं भूल सकता तुम्हे चाह कर के

वो क्षण, जब तुम रहती हो मेरे आसपास
सुंगंध तुम्हारे,
काले टेसुओं की
अविस्मृत कर देती मुझे तुम्हारी हर श्वास

प्रभावित होता हूँ मैं तुम्हारे व्यक्तित्व से
लगता हैं मानो
तुम हो साक्षात रति
आह्लादित होता मैं तुम्हारे  लावण्य से

अपनी मोहक मुद्राओं से मदांध करती
बल खाती तुम्हारे
कटी बंध की रेखाएं
श्यामवर्णी लटें बलखाती आँचल पर लहराती

नयनो में छलकता विराट प्रेमसागर
पानी जिसका
जैसे हो कोई मदिरा
पाया प्रेम रत्न मैंने इसमे डूबकर

अभिलाषा मेरी हैं केवल इतनी प्रिये
अमिट रहे छवि तुम्हारी
ह्रदय में
आती रहन स्वप्न में इसलिए

अंग्रेजी चिठ्ठे


Finding happiness in your life 

Excellent Articles

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

अचानक से


मुझे ईश्वर का वरदान हैं मेरे पिता,/मेरे लिए धूप में छावं है मेरे पिता,
मेरे वजूद का नाम है मेरे पिता,/मेरी धड़कन मेरी जान हैं मेरे पिता,........

लेखक  और कवि अंकुर जी का ब्लॉग
http://www.writerankur.in/2012/11/blog-post_9.html?spref=tw

भारतीय दर्शन ,साहित्य एवं अध्यात्म और धर्म के ठेकेदार

Eroticism & Spirituality 


विगत दिनों एक बेहद फूहड़ किस्म की फिल्म सिनेमाग्रहों में अवतरित हुई हैं , जिसका नाम "स्टूडेंट ऑफ़ इयर " (Student of Year) हैं, इस फिल्म के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका हैं अत इसके बारे और लिखना इस लेख के लिए उपुक्त विषय वस्तु  नहीं हैं | 

इस लेख का उद्देश्य उस विवाद पर अपना पक्ष रखना हैं जो इस फिल्म के एक गाने में "राधा" शब्द और राधा को लेकर गाने की पंक्तियों  पर मचा हुआ बेतुका विवाद हैं | 

धर्म और नैतिकता के तथा कथित ठेकेदार जो ऐसे ही मौकों की तलाश में  रहते हैं एक बार फिर "धर्म" और "आस्था" के रक्षा के लिए  कमर कस के मैदान में आ डटें हैं ,जिन्हें न तो भारतीय संस्कृति ,साहित्य और दर्शन  का रत्ती भर ज्ञान हैं और न ही उस परम्परा और अभिव्यक्ति का जो हमारी संस्कृति का अंग रही हैं .

बुद्धि रहित भक्ति और अनियंत्रित कामुकता का हमारे भारतीय साहित्य  और दर्शन चिंतन में सदैव निषेध 
रहा हैं ,तभी तो वैष्णवो के भावुकता पूर्ण भक्ति को  शैव मत चुनोती देता प्रतीत होता हैं ,तो शैवों के अनियंत्रित भोग और तांत्रिक परम्परा के मांस मैथुन मदिरा के दर्शन को जैनमत और बौद्धमत चुनौती देते नज़र आते हैं |
१२ शताब्दी :गणेश और देवी ..रतिक्रिया रत(See the hand of lord Ganesh )



यहाँ पर मैं तथागत भगवान बुद्ध के उस उपदेश देने की इच्छा को रोक नहीं पा रहा हूं जो इन खोखले और भ्रमिष्ठ  ठेकेदारों के मुहँ पर करार तमाचा हैं जो हर वक्त "धर्म खतरे" में का विलाप करते  रहते हैं 

मूल मागधी में 


"कुल्लुपम वो भिख्खे धम्मं देस्सिसामी
 नित्करगाम  वो गृहणत्याय |
 धम्मपि  पहातथापवेगव अधग्मा"

अर्थ:-

"भिक्षुओं ,मैं नौका की तरह धर्म का उपयोग करता हूँ | यह पार होने के लिए है ,पकड़ कर बैठने के लिए नहीं हैं |
जिसे हमने अधर्म मान  लिया हैं , उसे तो छोड़ देना ही पड़ता है , किन्तु जिसे हमने धर्म भी मान रखा था , और कालांतर में हमें लगता है की वह धर्म भी अब त्याज्य हैं , तो उसे भी छोड़ देना चाहिए "

आजकल के "धार्मिक कोलाहल" में हम धर्म को पकडे बैठे हैं ,पार होना तो असम्भव हैं 


कहने का तात्पर्य यह है की हमारी भारतीय संस्कृति में ,भारतीय साहित्य परम्परा में, काम और आध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं ,तांत्रिक परम्परा में तो देवी के सामने सम्भोग पूजा का अंग ही था ,शंकराचार्य की रचना "सौन्दर्यलहरी" पढ़े तो मालूम होगा की देवी के होटों से लेकर जंघा तक की स्तुति की गई हैं  देवी की स्तुति हो या फिर रीतिकाल में घनानंद ,जयदेव और बिहारी जैसे धुरंधर कवियों द्वारा रचे गए अनगिनत पद और पदावलियाँ जिनमें  राधा और कृष्ण के प्रतीकों को लेकर सम्भोग,रतिक्रिया और अध्यात्म के विभिन्न आयामों को अपने पदों में स्थान दिया हैं |
गजलक्ष्मी 


सबसे बड़ा उदहारण जो हमारे सामने रोज ही अपने नग्न रूप में  रहता हैं  वो हैं शिवलिंग ,यह क्या है ? और किसका प्रतीक हैं ? क्या देवी पार्वती की योनी, पिंडी का निचला भाग प्रदर्शित नहीं करता ,इसमें स्थित शिवलिंग जीवन के उद्भव और प्रकृति  की रचनाशीलता को नहीं दिखाता
श्री राम और देवी सीता: Artistic Representation 


अब कुछ पदों के द्वारा  "राधा" के शोर शराबे पर मचे बेतुके विवाद पर रौशनी डालूँगा 

बिहारी कृत बिहारी सतसई में राधा और कृष्ण के केवल प्रेम का ही उल्लेख नहीं बल्कि राधा किस रीति से कृष्ण के साथ रतिक्रिया करती हैं और कृष्ण राधा के तन पर पर कौनसे निशान बनाते हैं  इनका बड़ा मनोहारी और काव्यात्मक वर्णन हैं | बेशक कामुक हैं परन्तु कहीं से भी अश्लील और भोंडा नहीं हैं 

 राधा हरि ,हरि राधिका,बनी आई संकेता ; 
    दमपति रति बिपरति सुख,सहज सूरतहुम लेत 

अर्थ: 
राधा हरि ,हरि राधिका  अर्थात कृष्ण और राधा ने अपनी भूमिका बदल ली है ,रतिक्रिया में राधा कृष्ण के  ऊपर हैं (reverse missionary position) ,इस तरह राधा को कृष्ण होने का अहसास हुआ और उसे अभिनव आनंद की प्राप्ति हुई ,जबकि रति क्रिया सामान्य ही थी |

 पट की धीग कट धाम पियती  सोभित सुभग सुभेसा 
  हड़ रड़चढा  छबि देत रहा,सदा रड़ा की रेख 

कृष्ण राधा को छेड़ते हुए कहते हैं 
काटने के निशान तेरे  होटों पर दिखाई दे रहें हैं ,ओ मोहिनी प्यारी क्यों उन्हें छुपा रही हो अपनी साड़ी के पल्लू से 

कही पथाई मन भवति ,पिया आवन की बात 
  फूली अंगना में फिरई ,अंग न अंगई समात 

पिया के आने की खुशी में  ,अपने आँगन में वह खुशी से नाच रही है उसके वक्ष(Breast) प्रसन्नता से इतने फूल गए हैं कि उसकी अंगिया  उन्हें संभालने में असमर्थ हैं 

देव भाषा संस्कृत के नाटक कर्पूरमंजरी जिसे ,संस्कृत विद्वान लेखक राजशेखर ने लिखा था ,में ११ शताब्दीमें शैव मत  और कौलाचार , व्यहवार और आचरण और दर्शन की अद्भुत जानकारी मिलती हैं  

इसमे शैव कौलाचारी तांत्रिक  अन्य संप्रदायों के  आडम्बर की  खिल्ली उडाता हुआ कौलाचार को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताता हैं 
(मूल प्राकृत भाषा में )

मंतो ण तांतो ण अकिं पी जाणे
झमणाम  च ण किम पी गुरुप्रसाद 
मज्जम पीवामो ,महिलाम रमामो
मोख्ख्म च जामो कुल माग्गलग्गा 

अर्थ: मैं कोई रीति रिवाज या मंत्र नहीं मानता ,न मेरा ध्यान में विश्वास हैं, मेरे गुरु की आज्ञा से मैं मदिरा पान करूँगा  और स्त्री के साथ सम्भोग करते हुए  मोक्ष प्राप्त करूँगा  यही कौलाचार हैं 

भैरवानन्द कौलाचार को और स्पष्ट करते हुए कहता हैं 

भुक्षीम भाणती हरिबमहा मुह-वी देवा 
झणेणा  विपाधेणा  क दुक्कीआहिम 
एकेन्ना केवलं उमा दाई देण  दीणनों 
मोख्खे समय सूरा केली सूरा रसेहीम 
उमा महेश्वर: Flamboyant couple 


अर्थ:  "हरि और ब्रह्मा कहते हैं कि मोक्ष ध्यान से प्राप्त होगा ,वेदों का ध्यान और रीतिया (कर्मकांड) करनी पड़ेंगी केवल "उमा" के पति (शिव) ही ऐसे अकेले देव हैं जो कहते हैं कि मोक्ष केवल सम्भोग और मदिरा पान से मिलेगा 


उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि काम और अध्यात्म किस तरह एक दूसरे से हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं |





बुधवार, 7 नवंबर 2012

-:मदिरा :-


                     
 मदिरा वह द्रव है जो दवा होने का दवा करने के साथ साथ  सीधे अवचेतन याने Subconsciousness
पर आघात करती हैं | यह उस विश्व के होने का अति विश्वसनीय आभास देती हैं जो हमारे मस्तिष्क के रचनात्मक क्रियाशीलता का भाग नहीं होता ,इसी अवस्था को नशा या मद नाम से भी परिभाषित किया जा सकता हैं |  मदिरा पीने के पहले की स्थिति और फिर पीने के बाद की स्थितियों के अनुभवों को जैसा अनुभव किया उन्हें शब्दों के वस्त्रों में लपटने का प्रयास है यह कविता 


मद है जिसमे अटूट और जहरीला 
पीता इसको है फिर भी हटीला 
पीकर मनुष्य जिसको नहीं होता अकेला 
इस द्रव को कहते हम मदिरा 

दुःख ,पीड़ा को हरती और देती चैन 
पीकर इसको दमकते दोनों नैन 
व्यसनी मानते इसको अनमोल हीरा 
इस द्रव को हम कहते मदिरा  

जाम पे जाम पीते और छलकाते
मनुष्य अपनी बैचैनी भूल जाते 
लगता सरल पथ यदि हो पथरीला 
इस द्रव को हम कहते मदिरा   

अधरों की प्यास बुझती हैं 
कंठ को तर कर देती हैं
मस्तिष्क पर तो असर होता गहरा 
इस द्रव को हम कहते मदिरा  

प्रेमिका बन अधरों का चुम्बन लेती 
माता बन सिर को थपकाती
मित्र बन साथ हमारे लहराती 
इस द्रव को हम कहते मदिरा   

पीकर इसको बनता कोई दार्शनिक 
होता ये है मात्र  तात्क्षणिक 
उतरती है तो होता सब नाकारा
इस द्रव को हम कहते मदिरा  

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

अंग्रेजी चिट्ठों से

Did I fly too high?
Sun blazes angrily
Wax weeps from my wings.......


वस्तुतः कविता न होकर एक प्रकार से सवेंदना स्वयं शब्द बनकर प्रस्तुत हैं 
http://followyourshadow.wordpress.com/

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

गज़ल गोई

गज़ल  मूलतः अरबी साहित्य की एक विधा थी..यह कसीदे का शुरुवाती भाग हुआ करता था | बाद में  इरानी फारसी साहित्य में  गज़ल को एक उन्नत और अपने आप में एक पूर्ण विधा का दर्जा मिला |
इसी उन्नत रूप में यह काव्य विधा खड़ीबोली में उर्दू गज़ल के रूप में परवान चढ़ी |
इस विधा के अपने कुछ उसूल और कायदे है...जो इसे कसावट भरा और गीतात्मक बनाते हैं | कहते हैं गज़ल कहना आसान भी है और मुश्किल भी ...बस प्रयास किया हैं
इश्क मेरा बेमौत क्योंकर मरे ऐ बेवफा
जियेगा ये कमबख्त लिए तेरे ऐ बेवफा 

सोती रातों को जगां हूँ मैं बेखुद होकर
तू रकीब  पर इनायत करे ऐ बेवफा

कु-ऐ-यार में रकीब को यार बना  बैठे हैं 
उम्मीद में कि इधर  नज़र फिरे ऐ बेवफा

बादा ओ जाम नशे में करने लगे हैं रक्स
मैखाने में यूँ  हर शख्स गिरे ऐ बेवफा

तेरी इक नज़र का क़ायल "रविन्द्र" बदनसीब
कि अब तलक हैं ज़ख्म-ऐ-इश्क हरे ऐ बेवफा 

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

कलयुग

यह कविता करीब वर्ष भर पहले लिखी गई थी ,,परन्तु कुछ उथल पुथल समयातीत होती हैं


जीवन मूल्यों को चुनौती देता आया कलयुग 
मानव मन को कलुषित करता आया कलयुग 
फिर भी तस्वीरें उज्वल होती रहीं
मिटा न पाया इन्हें कलयुग


गुनाहों और पापों का ये कलयुग
मनुष्यों को अमनुष्य  बनाता ये कलयुग 
कुछ सज्जनों से हारता ये कलयुग
पल  पल लंबा होता ये कलयुग 

मूल्यों को गर्त में धकेलता हुआ कलयुग 
षडयंत्रों को रचता हुआ कलयुग 
सरल को कठिन बनाता हुआ कलयुग 
मोल पानी का  मांगता हुआ कलयुग 

किलकारियों को रुदन में बदलता कलयुग 
गीतों  को शोर में बदलता कलयुग
विद्वानों  को पथ से बहकता कलयुग 
अपनों को अपनो से परे ले जाता कलयुग 

रिश्तों  को ठुकराता कलयुग 
पांखंडियों को पुचकारता कलयुग 
चमत्कारों से बहलाता कल युग 
असत्य को स्वीकारता कल युग

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गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

नकली चेहरे

यह कविता  ७ अक्टूबर २००६  की रात को हैदराबाद में लिखी गई थी ...कुछ घटनाएँ याद आ गई थी ......

नकाब से ये नकली  चेहरे,
मानो बदलना इनका स्वभाव हैं
चाहे लाख लगाओ पहरे,
ये तो हैं बदलते चेहरे !

आडम्बरो से आच्छादित,
चालाकी से आनंदित 
कहते इनको कलयुगी चेहरे,
ये तो हैं बदलते चेहरे !

विश्वास  को पहुंचाते आघात,
करना होगा इनका प्रतिघात 
कुटिलता से भरे चितेरे,
ये तो हैं बदलते चेहरे !

पल में अपने  पल में पराये,
निज स्वार्थ सबकुछ कराये 
लालच ह्रदय  में भरे ,
ये तो हैं बदलते चेहरे !

विप्लव है अति आवश्यक,
परिवर्तन होगा तब्सर्थक 
आघात करो इन पर करारे,
ये तो हैं बदलते चेहरे !


मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

पल पल बदलती परिस्थितयाँ

पुरानी डायरियों,नोटबुकों में कभी कभी कुछ ऐसी बहुमूल्य अनुभूतियाँ दिखाई दे जाती हैं कि उनका प्रासंगिक होना बहुत अच्छा लगता हैं ....प्रस्तुत हैं मेरी पुरानी नोटबुक मैं १३ अक्टूबर २००६ की एक अभिव्यक्ति

घटनाएँ  

घटनाएं अपनी गति से घटती हैं ,
पहचानो अपनी घटनाओं को 
जो उद्देश्य तक पहुचती हैं 
अन्य तो मात्र घटती हैं 

 नायक बनो उन घटनाओं का 
जो नया इतिहास रच सके 
सार्थक हैं केवल वे घटनाएं
जो आरम्भ करे नये आयामों का 

घटक, घटनाओ के  पहचानो
कमी क्या थी ढूंढ निकालो 
परिष्कृत संस्करण परिभाषित कर 
पुनःवे घटनाएं  घट डालो

प्रभाव हर घटना का होता भिन्न 
स्त्रोत हो सकता हैं एक उनका
रास्ते  घटने के होते हैं विभिन्न 
रखो खाता इनके हर पल का 

घटनाएँ पसंद करती हैं मूक दर्शक 
क्योंकि वे घटने देते हैं बे रोक टोक 
महापुरुष  ही मोड़ते  घटनाओं की दिशा 
इतिहास  बनाता इन्ही से रोमहर्षक