रविवार, 14 अक्तूबर 2012

कलयुग

यह कविता करीब वर्ष भर पहले लिखी गई थी ,,परन्तु कुछ उथल पुथल समयातीत होती हैं


जीवन मूल्यों को चुनौती देता आया कलयुग 
मानव मन को कलुषित करता आया कलयुग 
फिर भी तस्वीरें उज्वल होती रहीं
मिटा न पाया इन्हें कलयुग


गुनाहों और पापों का ये कलयुग
मनुष्यों को अमनुष्य  बनाता ये कलयुग 
कुछ सज्जनों से हारता ये कलयुग
पल  पल लंबा होता ये कलयुग 

मूल्यों को गर्त में धकेलता हुआ कलयुग 
षडयंत्रों को रचता हुआ कलयुग 
सरल को कठिन बनाता हुआ कलयुग 
मोल पानी का  मांगता हुआ कलयुग 

किलकारियों को रुदन में बदलता कलयुग 
गीतों  को शोर में बदलता कलयुग
विद्वानों  को पथ से बहकता कलयुग 
अपनों को अपनो से परे ले जाता कलयुग 

रिश्तों  को ठुकराता कलयुग 
पांखंडियों को पुचकारता कलयुग 
चमत्कारों से बहलाता कल युग 
असत्य को स्वीकारता कल युग

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