शनिवार, 23 मार्च 2013

प्रेमचंद के निधन पर प्रकाशित दुर्लभ कविता:लेखक श्री गौरीशंकर मिश्र "द्विजेन्द्र"


प्रेमचंद 

प्रेमचंद तुम छिपे!किन्तु यह नहीं समझा था 
प्रेमसूर्य  का अभी कहाँ हुआ उदय था 
उपन्यास और कथा जगत तमपूर्ण निरुत्तर 
दीप्यमान था अभी तुम्हारा ही कर पाकर 

अस्त हुए रूम ,वृत यहाँ छा गया अँधेरा 
लिया आंधी ने डाल तिमर में आन डेरा 
उपन्यास है सिसकता रहा,रो रही कहानी 
देख रहे यह वदन मोड़ कैसे तुममानी 

सोचो उससे रुठ भागना अभी कथित है 
जिसमे आत्मा प्राण देह सर्वस्व निवर्त हैं 
क्या क्या इसके हेतु तुमने है वारे?
गल्प तुम्हारा और तुम गल्प के हो प्यारे 

हिंदू-उर्दू बहन बहन को गले मिलाया 
आपस कर चिर बैर-भाव को मार भगाया 
रोती  हिंदी इधर,उधर उर्दू बिलखती 
भला आज क्यों तुम्हे नहो करुणा आती 

छोड़ सभी को क्षीण दीन तुम स्वर्ग सिधारे 
रोका नहीं हा ! सके  तुम्हे शुचि प्रेम हमारे
आज नहीं तुम!किन्रू तुम्हारी कहानी 
सदा रहेगी जगत बीच  बन अमिट निशानी 



हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद

विख्यात हिंदी साहित्यिक मासिक पत्रिका "हँस" के १९३७ के "प्रेमचंद विशेषांक "में प्रेमचंद के निधन के  बाद उनसे जुड़ी हुए सस्मरणों को कई भाषाओँ के साहित्यकारों ,समाजसेवियों,प्रकाशकों आदि ने अपने अपने अपने ढंग से  व्यक्त किया | इसमे सब से अन्तरंग और मार्मिक लेख उनकी पत्नी शिवरानी देवी का है जिस में उन्होंने प्रेमचंद को एक लेखक से ज्यादा एक पति,पिता और आम आदमी के रूप में याद किया हैं .इस लेख  से हमें प्रेमचंद की कई घरेलू बातो.उनके आदतों आदि का पता चलता है

 मै इस लेख को शीघ्र ही यहाँ पर लिखेने वाला हूँ | अभ्यंतर  यहाँ मै हिंदी के मूर्धन्य साहित्य कार और "अनामदास का पोथा" और "बाणभट्ट की आत्मकथा" जैसे कालजयी उपन्यासों के रचियिता  हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के इसी अंक में प्रेमचंद के ऊपर लिखे गए लेख को  प्रस्तुत करता हूँ


"अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता की आचार विचार भाषा भाव,रहन सहन ,आशा आंकाक्षाओ,दुःख सुख और सूझबुझ जानना चाहते हो तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता ,आप बे खटके  प्रेमचंद का हाथ पकड़ कर ,मेड़ों पर गाते हुए किसानो को ,अन्तःपुर में मान किये हुए प्रियतमा को,कोठे पर बैठी हुई वारवनिता को ,रोटियों के लिए ललकते हुए भिकमंगो ,कूट परामर्श में लीन  गोविन्दी को,इर्ष्या, परोपकार,प्रेम,दुर्बल ह्रदय बैंकरों को ,साहस  परायण चमारिन को,दोगले पंडितो को,फरेबी व्यापारी को,ह्रदयहींन अफसरों को देख सकते हैं और निशित होकर विश्वास कर सकते हैं कि जो कुछ आपने देखा वह गलत नहीं हैं ."

महाकवि निराला और प्रेमचंद

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

मुंशी प्रेमचंद (१९२५)
जून १९३६ में मुंशी प्रेमचंद की तबियत बहुत खराब थी ,उस वक्त उन्हें देखेने कुछ लेखकगण आकर उन से मिल जाया करते थे ,महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला" भी उनसे मिलने आते रहते थे | निराला इस बात से क्षुब्ध थे कि हिंदी-उर्दू  साहित्य की इस महान विभूति के इस खराब समय पर साहित्य  रसिको,प्रकाशकों और लेखकों की तरफ अनदेखी का सामना करना पड़ रहा हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो | इस लेख में निराला अपनी तीखी टिप्पणी करते हैं 



"हिंदी के युगांतर साहित्य के  सर्वश्रेष्ठ रत्न,अंतरप्रांतीय ख्याति के  हिंदी के प्रथम साहित्यिक,प्रतिकूल परस्थितियो से निर्भीक वीर की तरह लडने वाले,उपन्यास संसार के एकछत्र सम्राट,रचना प्रतियोगता में विश्व में अधिक से अधिक लिखने वाले मनीषियों के समकक्ष आदरणीय प्रेमचंद जी आज महाव्याधि से ग्रस्त होकर शय्याशायी हो रहे हैं | कितने दुःख की बात है कि हिंदी के जिन समाचार पत्रों में हम राजनीतिज्ञ नेताओ के मामूली बुखार का तापमान प्रतिदिन पढते रहते हैं,उनमे श्री प्रेमचंद जी की,हिंदी के महान कथा कार प्रेमचंद की अवस्था की  साप्ताहिक खबर भी हमें पढनें को नहीं मिलती | दुःख ही नहीं ,हिंदी भाषियों को मर जाने की बात हैं लज्जा की बात हैं कि उन्होंने अपने साहित्यिको की ऐसी दशा न होने दी जिससे वो हँसते हुए जीते और आशीर्वाद देते हुए मरते | इसी अभिशाप के कारण हिंदी महारथी होकर भी अपने प्रांतीय साहित्यिको की दासी हैं ,हिंदी तभी महारानी है जब साहित्यिक के ह्रदय आसान पर पूजी जा सके ,पर ऐसा नहीं होता | उसके सेवक वे प्रतिभाशाली युवक ठोकरें खाते हुए बढते और  पश्चाताप   करते हुए मरते हैं "

बुधवार, 9 जनवरी 2013

गंगा की सफाई और प्रयाग कुम्भ २०१३

गंगा की सफाई एक ऐसा विषय है जिसने वर्तमान भारतीय जन मानस को उद्देलित किया हुआ हैं . ये बड़े आश्चर्य की बात है कि हम गंगा और अन्य नदियों को पवित्र मानकर उन्हें इतना मान देते हैं ,पर वास्तव में गन्दगी का नाला बनाने में हमारे समाज का कोई सानी नहीं ,तमाम तरह का औद्योगिक कचरा,धार्मिक अपशिष्ट ,लाशें ,दुनिया भर के विसर्जन ,रासायनिक कचरा इत्यादि उसी गंगा और अन्य नदियों में इतने शान से करते है कि सोचकर दंग रह जाना पड़ता है कि ,इसी तरह हम इन पावन नदियों को माँ होने का सम्मान देंगे



हैरत होती है जब हम देखते हैं की अंग्रेज लन्दन की थेम्स नदी के बारे में ऐसा कोई दवा नहीं करते कि उसमे स्नान करने से सारे पाप धुल जायेंगे ,या कभी जर्मनों को ये कहते नहीं सुना की राइन नदी हमारी माँ है,फिर देखे तो पता चलता है कि थेम्स और राइन हमारी गटर में तब्दील हो चुकी जमुना और अन्य नदियों से कही साफ़ और निर्मल हैं ,बावजूद इसके के हम इन नदियों को माँ जैसा नाम तो देते हैं पर इज्ज़त नहीं करते .


आइये संकल्प करे की १३ जनवरी २०१३ से प्रयाग-इलाहबाद के परम पावन संगम तट पर होने वाले पवित्र कुम्भ मेले से हम ये बीड़ा उठायें की अब इन नदियों को वो सम्मान देंगे जिनका दावा हम मुहँ और शब्दों से तो करते आयें हैं पर सत्य के धरातल पर नहीं

जन्म के समय
दूधमुहें बालक जैसा
शुद्ध होता है हर प्राणी
अंडे की कैद को तोड़ने वाला रोयेंदार चूज़ा
माँ के थन पर हुमकता गाय का बच्चा
या  नंग धडंग नवजात शिशु
जिसे थप्पड़ मरकरलय जाता हैं ,चेतना के आदि क्षणों में

मगर कालप्रवाह के साथ बहते बहते
आत्मा में उतरने लगती है कलुषता
और पानी को गंदला कर देती है
रूढियां और धर्म सिद्धांत
राख और अस्थियां
मृतको के मुरझाये पुष्पगुच्छ


और भरी दोपहर
केसरी धारियोंवाले मगरमच्छों के माथों से
रिसता पसीना
जो बड़ा सा मुहँ खोले
जपते रहते हैं मंत्र
किसी अप्रचलित बोली में

हो सको तो निकल फेंको
गंगा मैया के कटी प्रदेश पर डोलती
इन टिकातियों को
और विनती करो मरने वालो से
कि वे विसर्जन कर ले
किसी दूसरे संगम पर

कविता स्त्रोत :"देह के दो मौसम" कविता संग्रह, अनुवादक नूर नबी अब्बासी 
मूल कविता संग्रह के लेखक शिव के.कुमार और कविता अंग्रेजी में है  (Ist Edition 1993)

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

पाकिस्तान के वज़ीर-ऐ-खारजा से इक हिन्दुस्तानी की इल्तजा

आज पाकिस्तान के वजीर-खारजा जनाब रहमान मलिक हिंदुस्तान तशरीफ़ लाये ..हिंदुस्तान ने अपनी कदीम रवायत के मुताबिक अपने महमान के इसतकबाल में पलकें बिछा दीं.आखिर क्यों न हो मेहमान को खुदा का दर्ज़ा देना हमारी सकाफत का एक जुज़ हैं .

जनाब मलिक साहब

आपका कहना हैं कि हिंद-पाक को अब अपने माज़ी को भुलाकर आगे बढ़ाना होगा ,बहुत अच्छी बात फरमाई ..मगर आगे बढने के लिए भरोसा भी तो हो कि जिस रकीब को हम हमेशा अपना यार समझते हैं वो अब पीठ में छुरा नहीं उतार देगा.आप कुछ ऐसा कीजिये कि लगे हाँ कि अब वादा खिलाफी नहीं होगी .

२६/११ के मुल्जिमान को कानून के जद में लाकर उन्हें सज़ा दिलवाइए

ताल ठोंक कर कहिये कि दहशतगर्दों के केम्पो का हिंदुस्तान और पाकिस्तान मिलकर सफाया करेंगे

"हिंदुस्तान को पाकिस्तान के कई सियासतदां इसलाह करते आयें है कि हिंदुस्तान बढे भाई जैसा बर्ताव करे..." ज़रूर क्यों नहीं पर छोटे भाई का फ़र्ज़ भी तो अदा कीजिये बड़े भाई की बात मानकर ... आप देखिएगा अमन के रास्ते पर पाकिस्तान अपना पहल कदम जिस दिन रखेगा उस दिन हिंदुस्तान उस कदम को अपने हातों में उठा लेगा बस इक भरोसा देते जाये इस बार आयें है तो ..इसी उम्मीद के साथ मैं दुआ करता हूँ कि हर बार कि तरह ये मुज़ाखरात रस्मी न होकर कुछ हांसिल निकालने वाले साबित हो --आमीन

रविवार, 9 दिसंबर 2012

भारतीय दर्शन और चिंतन:समझने का एक प्रयास



भारतीय दर्शन और इसकी विभिन् धाराओं के बारें में समय समय पर मै थोड़ा बहुत पढता रहा हूं पर इनको समझन पाना मेरे लिए एक बौद्धिक चुनौती ही रही.जिसका कारण हमारे जीवन से संस्कृत का लोप होना और हमारे तथाकथित आजकल के संस्कारों में तर्क और वितर्क को धृष्टता मानना संभवतः रहा हो. समय समय पर अनके पुस्तकों,लेखों से बनाये गए नोट्स पर आखिर मैंने तय कर लिया की कुछ हद तक तो इन्हें आत्मसाथ अवश्य करूँगा और इसी प्रयास में मैंने इस लेख को लिख डाला.


भारतीय दर्शन मुख्यतः दो धाराओं में बटा हुआ माना जा सकता हैं .वैदिक या आस्तिक दर्शन और 
नास्तिक या तांत्रिक दर्शन.वैदिक दर्शन इश्वर और सृष्टि के मूल सिद्धांत की विभिन्न दृष्टिकोणों से विवेचना है,जबकि नास्तिक दर्शन इश्वर और आत्मा की निरंतरता और उपस्थिति को नकारता हैं 


वैदिक दर्शन


वैदिक दर्शन जिसे षडदर्शन(Group of 6 Philosophies)आर्य परम्पराओ का विस्तार है जो आगे लगभग ५ वी सदी इस्वी में पौराणिक मूर्तिपूजक हिंदुत्व के रूप में परिवर्तित हो गया.वैदिक दर्शन की धारायें:- न्याय,वैशेषिक,सांख्य,योग,मीमांसा और वेदांत हैं 



न्याय दर्शन: इस दर्शन का प्रवर्तक महर्षि गौतम को माना जाता हैं .यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधनों को प्रतिपादित करना न्याय दर्शन का मुख्य प्रयोजन हैं  

इस दर्शन के अनुसार ‘प्रमाण’ वह है जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती हैं."प्रमाण" के भी कई रूप बताये गए हैं.प्रत्यक्ष प्रमाण,अनुमान प्रमाण ,उपमान प्रमाण और शब्द प्रमाण.इन प्रमाणों द्वारा जाने गए ‘प्रमेय’(जिसका ज्ञान प्राप्त करना हो) के सम्बन्ध में न्याय दर्शन का यह मत हैं की जगत में ३ सत्ताए हैं,प्रकृति ,आत्मा और परमेश्वर ,ये तीनो ही सत्ताए हैं और यथार्थ में तीनो की सत्ता हैं,न्याय दर्शन के द्वारा इन तीनों के सम्बन्ध में यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता हैं.कालांतर 
में बौद्ध विद्वानों के द्वारा आर्य धर्म और इस दर्शन  कड़ी चुनौती दी गई.

नागार्जुन,वसुबंधु,दिंगनाग और धर्मकीर्ति जैसे धुरंधर बौद्ध दार्शनिक, जगत के मिथ्यातत्व का प्रतिपादन करते थे जो प्रकृति,आत्मा और परमेश्वर की यथार्थ सत्ता को अस्वीकार करता है. ये सभी 
विद्वान बौद्ध होने के पहले आर्य ब्रह्मण थे और वेदों का गहरा ज्ञान रखते थे.

दिंगनाक(५वी सदी इस्वी) ने कहा कि द्रव्य गुण और कर्म के संबंध में जो भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह सब मिथ्या हैं,क्योंकी सब क्षणिक है,इसमें उनका ज्ञान संभव ही नहीं.प्रमाणसमुच्चय,प्रमाणसमुच्चयावृत्ति,न्याय प्रवेश,हेतुचक्रनिर्णय और प्रमाणशास्त्र प्रवेश जैसे 
अभिनतम ग्रंथ लिख कर इस बौद्ध विद्वान ने भारतीय दर्शन में अतुलनीय योगदान दिया.

दिंगनाग की शिष्य परंपरा में धर्मकीर्ति,शांतरक्षित जैसे और भी विद्वान हुए. न्याय दर्शन को मिल 
रही इस तगड़ी चुनौती का सफलता पूर्वक सामना सम्राट हर्ष के समकालीन विद्वान उद्योतकर द्वारा 
किया गय.न्यायवर्तिका नमक ग्रंथ में उन्होंने दिगनाग के दृष्टिकोण का खंडन किया.इस काम को वाचस्पति मिश्र ने आगे बढ़ाते हुए ९वी सदी इस्वी में उद्योतकर के ग्रंथ न्यायवर्तिका पर टीका(Analysis/Review) लिखी और नए तर्क भी दिए.बौद्ध विद्वान दिग्नाग के शिष्य धर्मकीर्ति ने उद्योतकर के ग्रंथ न्यायवर्तिका के खंडन में न्यायबिंदु नामक जो ग्रंथ लिखा था उसका भी वाचस्पति 
मिश्र ने तात्पर्य टीका में जोरदार खंडन किया.

१०वी सदी के आते आते भारत में बौद्ध धर्म का अलग अस्तित्व लगभग धूमिल होने लगा इसका 
मुख्य कारण महायान बौद्धधर्म और पुराणिक हिंदू धर्म में स्थूल रूप में कोई अंतर नहीं रह गया था और तथागत बुद्ध, विष्णु के १० वे अवतार मान लिए गए थे. १०वी सदी में जयंतभट्ट  ने न्यायमंजरी लिखकर जैन,बौद्ध ,चावार्क आदि जैसे सभी नास्तिक मतों का खंडन किया.इसी समय उदयनाचार्य ने वाचस्पति मिश्र की तात्पर्य टीका  की व्याख्या करने के लिए तात्पर्यपरिशुद्धि की रचना की.न्यायकुसुमांजलि उदयनाचार्य का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमे तर्कों द्वारा इश्वर के अस्तित्व को प्रतिपादित किया गया हैं. 

मीमांसा दर्शन(पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा):

महर्षि जैमिनी द्वारा प्रवर्तित यह दर्शन वैदिक कर्मकांडो में पशु बलियों,यज्ञ,विधि विधान की विस्तारपूर्वक व्याख्या करता है.वेदों द्वरा विहित कर्म के निष्पादन से अपूर्व की उत्पत्ति होती हैं और फिर अपूर्व के के अनुसार मनुष्य को कौनसा कर्मफल मिलता हैं,इसका प्रतिपादन पूर्व मीमांसा करती हैं.

गुप्तकाल में शबर स्वामी ने शबरभाष्य लिखा इसी भाष्य पर कुमारिल भट्ट,प्रभाकर,मुरारी मिश्र जैसे वैदिक विद्वानों ने टिकाएं लिखी.कुमारिल भट्ट ने ७वीं के आसपास इसको आगे पढते हुए उत्तर मीमांसा का विकास किया

सांख्य:सृष्टि के कर्ता के रूप में इश्वर की सत्ता को नहीं मानता ,पर प्रकृति और पुरुष एवं  वेद उनकी दृष्टी में अंतिम प्रमाण हैं.कपिल मुनि इसके प्रवर्तक हैं.आसुरि,पंचशिख आदि शिष्यों ने इसे आगे बढ़ाया आचार्य इश्वरकृष्ण ने ४थी सदी में सांख्यसारिका नामक ग्रंथ में इसे पूर्णत प्रतिपादित कर दिया.इस ग्रंथ को बौद्ध भिक्षु परमार्थ ने चीनी भाष में भी अनुवादित किया

वैशेषिक दर्शन:कणाद ऋषि इसके प्रवर्तक माने जाते हैं २री और ३री शताब्दी इसवी तक यह सांख्य दर्शन से पिछाडा हुआ था परन्तु प्रशस्तिपाद ने पदार्थधर्मसंग्रह ग्रंथ में इसे मजबूत आधार दिया,उदयनाचार्य ने इसी ग्रंथ पर अपनी टीका किरणावली की रचना की.




वेदांत दर्शन: वेदांत दर्शन की उत्पत्ति बौद्धधर्म के क्षीण होने और पौराणिक हिन्दुधर्म की अंतिम रूप से प्रतिपादित होने का कारण बनी.इस दर्शन का आधार उपनिषद थे जिन्हें वेदांत भी कहा जाता हैं.
वैदिक धर्म, जो अब मूर्तिपूजक पौराणिक हिन्दुधर्म में पूर्ण रूप से बदल चुका था परन्तु 
शैव,वैष्णव,लोकायत,चावार्क,शाक्त आदि संप्रदायों में बटा हुआ था,के पुनुर्त्थान के लिए यह आवश्यक था कि उपनिषद  के ब्रह्मज्ञान को ऐसे दार्शनिक ढंग से प्रस्तुत किया जाय जो सबको स्वीकार्य हो और ऐसा आदि शंकराचार्य ने सफलतापूर्वक कर दिखाया और इसलिए ही शैव,वैष्णव,शाक्त जैसे अनेक संप्रदायों में आधारभूत ऐक्य स्थापित हो सका.

इस दर्शन के अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति हैं ,जो सीधे सीधे बौद्धधर्म की निर्वाण अवधारणा को जस का तस अपनाने जैसा हैं और शायद इसलिए आदि शंकराचार्य जो इस दर्शन के 
आधार स्तंभ हैं,पर वैदिक विद्वानों ने प्रछन्न बौद्ध” (Buddhist in Vedic Disguise)  होने का आरोप जड़ दिया.

शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का एक मात्र साधन ब्रह्माहै . ब्रह्मा का मतलब तीन मुहँ वाले ब्रह्मा नहीं,यहाँ पर अमूर्त ईश्वरीय सत्ता को ब्रह्मा कहा गया हैं जिसकी तुलना सूफी इस्लाम की तौहीद अवधारणा से की जा सकती हैं. जो अनलहकको प्रतिपादित करता है और अहंब्रह्मस्मी वेदांत को.यही कारण हैं की सूफी इस्लाम और वेदांत में इतनी समानता पाई जाती हैं.

ब्रह्मा वह है जिसमे जगत की उत्पत्ति हुई और जिस में जगत स्थित रहता है और उसी में जगत का विलय हो जाता हैं. ब्रह्मसूत्र को स्पष्ट करने के लिए शंकराचार्य ने शंकरभाष्यलिखा इसमें वेदांत के अद्वैतवाद का बड़ी योग्यता के साथ प्रतिपादन किया है.

उनके अनुसार ब्रह्मा ही सत्य है,जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्मा से भिन्न नहीं हैं और ब्रह्मा के अतिरिक्त 
कोई सत्ता नहीं हैं स्पष्ट है के यह सिद्धांत भक्तिमार्ग से सर्वथा उलट हैं क्योंकि भक्तिमार्ग में भक्त और भगवान का अस्तित्व अलग अलग माना  जाता हैं.बौद्धधर्म के शून्यवाद का प्रभाव अद्वैतवाद पर स्पष्टतः द्रष्टिगोचर होता हैं.

वैष्णव संप्रदाय की इस सिद्धांत से चूलें हिल गई क्योंकि वैष्णव सम्प्रदाय भक्तिमार्ग पर विश्वास रखता था पर यदि जीव और इश्वर में भिन्नता ही नहीं रही तो इश्वर की भक्ति का कोई मतलब नहीं 
रह जाता.इसलिए रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र के नई व्याख्या करते हुए विशिष्टाद्वैत की स्थापना की.रामानुजनाचार्य के अनुसार केवल ब्रह्मा ही एक मात्र सत्ता नहीं हैं,अपितु जीवात्मा(चित्त),जड़ जगत(अचित्त),और परमात्मा,ये तीनों ही सत्ताएं हैं.जीवात्मा और जड़ जगत परमात्मा के शारीर के समान हैं,जो बाह्य जगत के उपादान(reason of cause) का कारण भी हैं और निमित्त का कारण भी.जीवात्मा और जड़ जगत परमत्मा के विशिष्ट गुण हैं और अद्वैत होते हुए भी ब्रह्मा एक ऐसा रूप प्राप्त कर लेता है जिसमें आत्मा की पृथक विशिष्ट सत्ता बनी रहती हैं.इसलिए मोक्ष के लिए आवश्यक है कि जीवात्मा परमात्मा की भक्ति करे.


  
योग दर्शन :इसके प्रणेता पतंजलि हैं इसमें शारीरिक मुद्राओं द्वारा ध्यान की स्थितिओं को प्राप्त किया जाता हैं.शैव और बाद में नाथ योगियों ने इसे अपना मुख्य साधन बनाया और हटयोग की अवधारणा अस्तित्व में आई.तांत्रिक और वज्रयान बुद्धधर्म में भी इसको अपनाया गया 


शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

सर्दियों का एक स्वप्न

आज एक अंग्रेजी पत्रिका में मुझे फ़्रांसिसी कवि ऑर्थर रिम्बौद (Arthur Rimbaud) कि एक सुन्दर कविता "अ ड्रीम फॉर विंटर" पढने को मिली. यह कविता एक सुन्दर अनुभूति है और भाव प्रवण भी .एकाएक  मन में ख्याल आया कि इसका हिंदी भावार्थ कर के देखना चाहिए बस फिर क्या था ...



सर्दियों में जब हम निकल पड़ेंगे 
यात्रा करने  रेल के नीले डिब्बे में
जिसमे होंगे सफ़ेद तकिये ,
निश्चिन्त और आरामदायक 
जिसके हर मुलायम कोनों पर होंगे
चुम्बनों के अम्बार बिखरे हुए 

तुम अपनी आँखे बंद कर लोगी 
जिससे तुम खिडकी के बहार 
नहीं देख पाओगी,
सांझ की उतरती परछाइयाँ,
वो रिरियाती भीड़ भाड़,या 
धूर्त भेडिये या काले कुत्ते 

अब तुम महसूस करोगी 
तुम्हारे गालों पर खरोंचे 
इक मखमली चुम्बन मानो,
एक मतवाली मकड़ी 
तुम्हारी गर्दन पर फिसल गई हो 

और तुम मुझसे कहोगी 
अपना सिर पीछे झुकाकर
"ढूंढो उसे "
और मै उस जीव को ढूढने में 
एक लंबा समय लगाऊंगा 
जो इधर उधर बहुत भागता है