नागार्जुन,वसुबंधु,दिंगनाग
और धर्मकीर्ति जैसे धुरंधर बौद्ध दार्शनिक, जगत के मिथ्यातत्व का प्रतिपादन करते
थे जो प्रकृति,आत्मा और परमेश्वर की यथार्थ सत्ता को अस्वीकार करता है. ये सभी
विद्वान
बौद्ध होने के पहले आर्य ब्रह्मण थे और वेदों का गहरा ज्ञान रखते थे.
दिंगनाक(५वी
सदी इस्वी) ने कहा कि द्रव्य गुण और कर्म के संबंध में जो भी ज्ञान प्राप्त किया
जाता है वह सब मिथ्या हैं,क्योंकी सब क्षणिक है,इसमें उनका ज्ञान संभव ही नहीं.प्रमाणसमुच्चय,प्रमाणसमुच्चयावृत्ति,न्याय
प्रवेश,हेतुचक्रनिर्णय और प्रमाणशास्त्र प्रवेश जैसे
अभिनतम ग्रंथ लिख कर इस बौद्ध
विद्वान ने भारतीय दर्शन में अतुलनीय योगदान दिया.
दिंगनाग की
शिष्य परंपरा में धर्मकीर्ति,शांतरक्षित जैसे और भी विद्वान हुए. न्याय दर्शन को
मिल
रही इस तगड़ी चुनौती का सफलता पूर्वक सामना सम्राट हर्ष के समकालीन विद्वान
उद्योतकर द्वारा
किया गय.न्यायवर्तिका नमक ग्रंथ में उन्होंने दिगनाग के दृष्टिकोण
का खंडन किया.इस काम को वाचस्पति मिश्र ने आगे बढ़ाते हुए ९वी सदी इस्वी में उद्योतकर
के ग्रंथ न्यायवर्तिका पर टीका(Analysis/Review)
लिखी और नए तर्क भी
दिए.बौद्ध विद्वान दिग्नाग के शिष्य धर्मकीर्ति ने उद्योतकर के ग्रंथ न्यायवर्तिका
के खंडन में न्यायबिंदु नामक जो ग्रंथ लिखा था उसका भी वाचस्पति
मिश्र ने तात्पर्य टीका में जोरदार खंडन किया.
१०वी सदी के आते
आते भारत में बौद्ध धर्म का अलग अस्तित्व लगभग धूमिल होने लगा इसका
मुख्य कारण
महायान बौद्धधर्म और पुराणिक हिंदू धर्म में स्थूल रूप में कोई अंतर नहीं रह गया
था और तथागत बुद्ध, विष्णु के १० वे अवतार मान लिए गए थे. १०वी सदी में जयंतभट्ट ने न्यायमंजरी लिखकर जैन,बौद्ध ,चावार्क आदि जैसे
सभी नास्तिक मतों का खंडन किया.इसी समय उदयनाचार्य ने वाचस्पति मिश्र की तात्पर्य
टीका की व्याख्या करने के लिए तात्पर्यपरिशुद्धि
की रचना की.न्यायकुसुमांजलि उदयनाचार्य का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमे तर्कों
द्वारा इश्वर के अस्तित्व को प्रतिपादित किया गया हैं.
मीमांसा दर्शन(पूर्व
मीमांसा और उत्तर मीमांसा):
महर्षि जैमिनी
द्वारा प्रवर्तित यह दर्शन वैदिक कर्मकांडो में पशु बलियों,यज्ञ,विधि विधान की
विस्तारपूर्वक व्याख्या करता है.वेदों द्वरा विहित कर्म के निष्पादन से “अपूर्व” की उत्पत्ति होती हैं और फिर “अपूर्व” के के अनुसार
मनुष्य को कौनसा कर्मफल मिलता हैं,इसका प्रतिपादन पूर्व मीमांसा करती हैं.
गुप्तकाल में शबर
स्वामी ने “शबरभाष्य” लिखा इसी भाष्य पर कुमारिल भट्ट,प्रभाकर,मुरारी मिश्र
जैसे वैदिक विद्वानों ने टिकाएं लिखी.कुमारिल भट्ट ने ७वीं के आसपास इसको आगे पढते
हुए उत्तर मीमांसा का विकास किया
सांख्य:सृष्टि
के कर्ता के रूप में इश्वर की सत्ता को नहीं मानता ,पर प्रकृति और पुरुष एवं वेद उनकी
दृष्टी में अंतिम प्रमाण हैं.कपिल मुनि इसके प्रवर्तक हैं.आसुरि,पंचशिख आदि
शिष्यों ने इसे आगे बढ़ाया आचार्य
इश्वरकृष्ण ने ४थी सदी में “सांख्यसारिका” नामक ग्रंथ में इसे पूर्णत प्रतिपादित
कर दिया.इस ग्रंथ को बौद्ध भिक्षु परमार्थ ने चीनी भाष में भी अनुवादित किया
वैशेषिक दर्शन:कणाद
ऋषि इसके प्रवर्तक माने जाते हैं २री और ३री शताब्दी इसवी तक यह सांख्य दर्शन से
पिछाडा हुआ था परन्तु प्रशस्तिपाद ने पदार्थधर्मसंग्रह ग्रंथ में इसे मजबूत आधार
दिया,उदयनाचार्य ने इसी ग्रंथ पर अपनी टीका “किरणावली” की रचना की.
वेदांत दर्शन:
वेदांत दर्शन की उत्पत्ति बौद्धधर्म के क्षीण होने और पौराणिक हिन्दुधर्म की अंतिम
रूप से प्रतिपादित होने का कारण बनी.इस दर्शन का आधार उपनिषद थे जिन्हें वेदांत भी
कहा जाता हैं.
वैदिक धर्म, जो
अब मूर्तिपूजक पौराणिक हिन्दुधर्म में पूर्ण रूप से बदल चुका था परन्तु
शैव,वैष्णव,लोकायत,चावार्क,शाक्त
आदि संप्रदायों में बटा हुआ था,के पुनुर्त्थान के लिए यह आवश्यक था कि उपनिषद के ब्रह्मज्ञान को ऐसे दार्शनिक ढंग से प्रस्तुत
किया जाय जो सबको स्वीकार्य हो और ऐसा आदि शंकराचार्य ने सफलतापूर्वक कर दिखाया और
इसलिए ही शैव,वैष्णव,शाक्त जैसे अनेक संप्रदायों में आधारभूत ऐक्य स्थापित हो सका.
इस दर्शन के
अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति हैं ,जो सीधे सीधे बौद्धधर्म की निर्वाण
अवधारणा को जस का तस अपनाने जैसा हैं और शायद इसलिए आदि शंकराचार्य जो इस दर्शन के
आधार स्तंभ हैं,पर वैदिक विद्वानों ने “प्रछन्न बौद्ध” (Buddhist in Vedic Disguise) होने का आरोप जड़ दिया.
शंकराचार्य के
अनुसार मोक्ष प्राप्ति का एक मात्र साधन “ब्रह्मा” है . ब्रह्मा का मतलब तीन मुहँ वाले ब्रह्मा नहीं,यहाँ पर
अमूर्त ईश्वरीय सत्ता को ब्रह्मा कहा गया हैं जिसकी तुलना सूफी इस्लाम की “तौहीद” अवधारणा से की जा सकती हैं. जो “अनलहक” को प्रतिपादित करता है और “अहंब्रह्मस्मी” वेदांत को.यही कारण हैं की सूफी इस्लाम
और वेदांत में इतनी समानता पाई जाती हैं.
ब्रह्मा वह है
जिसमे जगत की उत्पत्ति हुई और जिस में जगत स्थित रहता है और उसी में जगत का विलय
हो जाता हैं. ब्रह्मसूत्र को स्पष्ट करने के लिए शंकराचार्य ने “शंकरभाष्य”लिखा इसमें वेदांत के अद्वैतवाद का बड़ी योग्यता के
साथ प्रतिपादन किया है.
उनके अनुसार “ब्रह्मा ही
सत्य है,जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्मा से भिन्न नहीं हैं और ब्रह्मा के अतिरिक्त
कोई सत्ता नहीं हैं” स्पष्ट है के यह
सिद्धांत “भक्तिमार्ग” से सर्वथा उलट हैं क्योंकि भक्तिमार्ग में भक्त और भगवान
का अस्तित्व अलग अलग माना जाता हैं.बौद्धधर्म
के “शून्यवाद” का प्रभाव अद्वैतवाद पर स्पष्टतः द्रष्टिगोचर होता हैं.
वैष्णव संप्रदाय
की इस सिद्धांत से चूलें हिल गई क्योंकि वैष्णव सम्प्रदाय भक्तिमार्ग पर विश्वास
रखता था पर यदि जीव और इश्वर में भिन्नता ही नहीं रही तो इश्वर की भक्ति का कोई
मतलब नहीं
रह जाता.इसलिए रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र के नई
व्याख्या करते हुए “विशिष्टाद्वैत” की स्थापना की.रामानुजनाचार्य के
अनुसार “केवल ब्रह्मा ही एक मात्र सत्ता नहीं
हैं,अपितु जीवात्मा(चित्त),जड़ जगत(अचित्त),और परमात्मा,ये तीनों ही सत्ताएं
हैं.जीवात्मा और जड़ जगत परमात्मा के शारीर के समान हैं,जो बाह्य जगत के उपादान(reason of cause) का कारण भी हैं और निमित्त का कारण भी.जीवात्मा
और जड़ जगत परमत्मा के विशिष्ट गुण हैं और अद्वैत होते हुए भी ब्रह्मा एक ऐसा रूप
प्राप्त कर लेता है जिसमें आत्मा की पृथक विशिष्ट सत्ता बनी रहती हैं.इसलिए मोक्ष
के लिए आवश्यक है कि जीवात्मा परमात्मा की भक्ति करे.
योग दर्शन
:इसके प्रणेता पतंजलि हैं इसमें शारीरिक मुद्राओं द्वारा ध्यान की स्थितिओं को
प्राप्त किया जाता हैं.शैव और बाद में नाथ योगियों ने इसे अपना मुख्य साधन बनाया
और हटयोग की अवधारणा अस्तित्व में आई.तांत्रिक और वज्रयान बुद्धधर्म में भी इसको
अपनाया गया