बुधवार, 9 जनवरी 2013

गंगा की सफाई और प्रयाग कुम्भ २०१३

गंगा की सफाई एक ऐसा विषय है जिसने वर्तमान भारतीय जन मानस को उद्देलित किया हुआ हैं . ये बड़े आश्चर्य की बात है कि हम गंगा और अन्य नदियों को पवित्र मानकर उन्हें इतना मान देते हैं ,पर वास्तव में गन्दगी का नाला बनाने में हमारे समाज का कोई सानी नहीं ,तमाम तरह का औद्योगिक कचरा,धार्मिक अपशिष्ट ,लाशें ,दुनिया भर के विसर्जन ,रासायनिक कचरा इत्यादि उसी गंगा और अन्य नदियों में इतने शान से करते है कि सोचकर दंग रह जाना पड़ता है कि ,इसी तरह हम इन पावन नदियों को माँ होने का सम्मान देंगे



हैरत होती है जब हम देखते हैं की अंग्रेज लन्दन की थेम्स नदी के बारे में ऐसा कोई दवा नहीं करते कि उसमे स्नान करने से सारे पाप धुल जायेंगे ,या कभी जर्मनों को ये कहते नहीं सुना की राइन नदी हमारी माँ है,फिर देखे तो पता चलता है कि थेम्स और राइन हमारी गटर में तब्दील हो चुकी जमुना और अन्य नदियों से कही साफ़ और निर्मल हैं ,बावजूद इसके के हम इन नदियों को माँ जैसा नाम तो देते हैं पर इज्ज़त नहीं करते .


आइये संकल्प करे की १३ जनवरी २०१३ से प्रयाग-इलाहबाद के परम पावन संगम तट पर होने वाले पवित्र कुम्भ मेले से हम ये बीड़ा उठायें की अब इन नदियों को वो सम्मान देंगे जिनका दावा हम मुहँ और शब्दों से तो करते आयें हैं पर सत्य के धरातल पर नहीं

जन्म के समय
दूधमुहें बालक जैसा
शुद्ध होता है हर प्राणी
अंडे की कैद को तोड़ने वाला रोयेंदार चूज़ा
माँ के थन पर हुमकता गाय का बच्चा
या  नंग धडंग नवजात शिशु
जिसे थप्पड़ मरकरलय जाता हैं ,चेतना के आदि क्षणों में

मगर कालप्रवाह के साथ बहते बहते
आत्मा में उतरने लगती है कलुषता
और पानी को गंदला कर देती है
रूढियां और धर्म सिद्धांत
राख और अस्थियां
मृतको के मुरझाये पुष्पगुच्छ


और भरी दोपहर
केसरी धारियोंवाले मगरमच्छों के माथों से
रिसता पसीना
जो बड़ा सा मुहँ खोले
जपते रहते हैं मंत्र
किसी अप्रचलित बोली में

हो सको तो निकल फेंको
गंगा मैया के कटी प्रदेश पर डोलती
इन टिकातियों को
और विनती करो मरने वालो से
कि वे विसर्जन कर ले
किसी दूसरे संगम पर

कविता स्त्रोत :"देह के दो मौसम" कविता संग्रह, अनुवादक नूर नबी अब्बासी 
मूल कविता संग्रह के लेखक शिव के.कुमार और कविता अंग्रेजी में है  (Ist Edition 1993)

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