गज़ल मूलतः अरबी साहित्य की एक विधा थी..यह कसीदे का शुरुवाती भाग हुआ करता था | बाद में इरानी फारसी साहित्य में गज़ल को एक उन्नत और अपने आप में एक पूर्ण विधा का दर्जा मिला |
इसी उन्नत रूप में यह काव्य विधा खड़ीबोली में उर्दू गज़ल के रूप में परवान चढ़ी |
इस विधा के अपने कुछ उसूल और कायदे है...जो इसे कसावट भरा और गीतात्मक बनाते हैं | कहते हैं गज़ल कहना आसान भी है और मुश्किल भी ...बस प्रयास किया हैं
इश्क मेरा बेमौत क्योंकर मरे ऐ बेवफा
जियेगा ये कमबख्त लिए तेरे ऐ बेवफा
सोती रातों को जगां हूँ मैं बेखुद होकर
तू रकीब पर इनायत करे ऐ बेवफा
कु-ऐ-यार में रकीब को यार बना बैठे हैं
उम्मीद में कि इधर नज़र फिरे ऐ बेवफा
बादा ओ जाम नशे में करने लगे हैं रक्स
मैखाने में यूँ हर शख्स गिरे ऐ बेवफा
तेरी इक नज़र का क़ायल "रविन्द्र" बदनसीब
कि अब तलक हैं ज़ख्म-ऐ-इश्क हरे ऐ बेवफा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें