शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

गज़ल गोई

गज़ल  मूलतः अरबी साहित्य की एक विधा थी..यह कसीदे का शुरुवाती भाग हुआ करता था | बाद में  इरानी फारसी साहित्य में  गज़ल को एक उन्नत और अपने आप में एक पूर्ण विधा का दर्जा मिला |
इसी उन्नत रूप में यह काव्य विधा खड़ीबोली में उर्दू गज़ल के रूप में परवान चढ़ी |
इस विधा के अपने कुछ उसूल और कायदे है...जो इसे कसावट भरा और गीतात्मक बनाते हैं | कहते हैं गज़ल कहना आसान भी है और मुश्किल भी ...बस प्रयास किया हैं
इश्क मेरा बेमौत क्योंकर मरे ऐ बेवफा
जियेगा ये कमबख्त लिए तेरे ऐ बेवफा 

सोती रातों को जगां हूँ मैं बेखुद होकर
तू रकीब  पर इनायत करे ऐ बेवफा

कु-ऐ-यार में रकीब को यार बना  बैठे हैं 
उम्मीद में कि इधर  नज़र फिरे ऐ बेवफा

बादा ओ जाम नशे में करने लगे हैं रक्स
मैखाने में यूँ  हर शख्स गिरे ऐ बेवफा

तेरी इक नज़र का क़ायल "रविन्द्र" बदनसीब
कि अब तलक हैं ज़ख्म-ऐ-इश्क हरे ऐ बेवफा 

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